मै से मय तक
विषयों के पीछे अन्नमय रहगया था ।
"मैं "
को मिटा के तनमय हो गया ।।
गिनकर दौलत ग़रूर छा रहा था ।
साँसों को गिनकर प्राणमय हो गया ।।
सुख की खोज मै मन भटक रहा था ।
मन मै जब झाँका मनमय हो गया ।।
अंतर के खुले द्वार ध्यान अंतर मैं स्थिर था ।
मिटगया अंधकार ज्ञानमय हो गया ।।
आत्मा से आत्मा का दीदार हो रहा था ।
अब रहा न कुछ, अब बचा न कुछ, सब कुछ सर्वदा आनंदमय हो गया ।।
कोसों का जो फ़सिला लग रहा था ।
रास्ता, पाँच कोष मै तय हो गया ।।
"मैं "
एक दीवार थी, उस पार परब्रह्म था ।
ढलतेही "मै"
सब प्रभुमय हो गया ।।
ख़ुद में रहेकर खुदसे जुदा था ।
भुलाके खुदको, ख़ुद खुदा होगया ।।
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