Thursday, February 1, 2018

"मै " मारे, तव शिव तारे

"मै " मारे, तव शिव तारे 

कोई मन मारे, कोई तन मारे,
कोई मारे मूक जीव।
ना मारे तु मैं को अपनी
क्यूँ कर पावै  शिव ।।
                       - साधक

कोइ मन को मारता है।  तो कोई तन को मारता है।  
तन को मारने का मतलब है अपने ही शरीर पर अत्याचार करना।  उपवास करना, कईं 
दिनों तक बगैर अन्न जल के रहना। और भी कईं तरहके अत्याचार लोग अपने ही शरीर पर करते है, यह सोच कर की ऐसा करनेसे परमेश्वर की कृपा होगी। 

गीता अध्याय , १६ 
भगवान श्री कृष्ण कहते है 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति चैकान्तमनश्नतः।
  
चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।

अर्थात हे अर्जुन यह योग तो अधिक खानेवालेका और बिलकुल खानेवालेका तथा अधिक सोनेवालेका और बिलकुल सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।

गीता अध्याय , १७ 

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।

दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।

कुछ लोग अपने मन को मारते है।  आध्यात्म मैं मन की अहम् भूमिका है।  संत कबीर कहते है ,

कुंभे बांधा जल रहै, जल बिन कुंभ होय।

ज्ञानै बांधा मन रहै, मन बिन ज्ञान होय।।

घड़े की दीवरों के होने से ही उसमें जल टिका रहता है और जल के बिना केवल मिट्टी से घड़ा भी नहीं बन सकता। अर्थात दोनों के संयोग से ही दोनों है। इसी प्रकार यह चंचल मन ज्ञान के बंधन से ही शांत -स्थिर रहता है और इसी मन के बिना ज्ञान भी नहीं होता। (संसार मैं जितना भी ज्ञान विज्ञान दिखाई पड़ता है उसका माध्यम मन ही है। 

कुछ लोग बेजुबान पशु की बलि चढ़ाकर परमात्मा को खुश करना चाहते है।  परंतु जिसको मरना चाहिए उसे नहीं मारते।  अगर किसीको मरने से परमात्म दर्शन होता है तो वह  है "मै " अहम् , अभिमान , ego . 

जब तक हम इस "मै " (ego ) को नहीं मरेंगे,  साधन के यज्ञ मैं "मै " की बलि नहीं चढ़ाएंगे तभ तक परमात्म साक्षात्कार नहीं होगा। 

- साधक 


ग्रहण

कुछ पल के इस ग्रहण की फ़िकर करे हर कोई ।
ना सोचे उस ग्रहण की, आतम पर “मै” से होई ।।

चाँद सूरज जब ग्रहण करे, कुछ पल मैं छूट जाय ।
“मै” जो आतम ग्रहण करे, जनमो रहे परछाय ।।

आतम = आत्मा
मै = ego