दोहे

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कभी खुशी के दीप जलाए,
   कभी बहे 
अश्कों की धारा।
कभी उठाए कभी 
गिराए,
  प्रारब्ध का 
हैं
 खेल यह सारा ।।

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न विलाप कर न फ़रियाद कर।
प्रभु की मर्जी का, 
यूं न अपमान कर।।
प्रारब्ध तो प्रसाद 
हैं
मन से इसे स्वीकार कर ।

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मंदिर गयामस्जिद गयाढूँढिया तिरथ धाम ना कहीं पाया रहीम नुना कहीं देखिया राम ।।
जब तन झाँका आपनाहुआ जब आतम ज्ञान फिर ना कहीं कभी कुछ मिलाजिसमें बसा ना राम ।।

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ढूँढता है यूँ, कहीं खोया हो जैसे। 


यूँ पुकारता है, कहीं सोया हो जैसे।। 


चढ़ाके फुलोंका हार,

        यूँ करता है मिन्नतें हज़ार। 


भगवान तेरा तुजसे रूठा हो जैसे।। 


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मोत से क्या डरना

      कई बार मर लिए।

डर तो ज़िन्दगी का है

      कहीं फिरसे ना मिले।।

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कोई मन मारे, कोई तन मारे,

कोई मारे मूक जीव।
ना मारे तु “मैं” को अपनी


क्यूँ कर पावै  शिव ।।

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कुछ पल के इस ग्रहण की फ़िकर करे हर कोई ।
ना सोचे उस ग्रहण की, आतम पर “मै” से होई ।।

चाँद सूरज जब ग्रहण करे, कुछ पल मैं छूट जाय ।
“मै” जो आतम ग्रहण करे, जनमो रहे परछाय ।।

आतम = आत्मा
मै = ego 

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बढ़ सांसो की माला फेरे  
सातों तीरथ साथ है  तेरे ।।

सांसो की माला फेरना  =  प्राणायाम  / ध्यान करना 

सात तीरथ   =  सहश्रार, आज्ञाचक्र , विशुद्धचक्र , अनाहत , मणिपूर , स्वाधिष्ठान  और मूलाधार 

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अपनी अपनी किस्मत होगी , और तरक न समजाय 
इक पत्थर चौखट बने , इक बन मूरत पूजाय ।।

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ना मक्का ना क़ाबा काशी, ना मस्जिद ना मंदर में ।
पथ पथ काहे ढूँढे साधक, मैं  तो तेरे अंतर में।।

अपनी “मैं” से मूजको ढककर, मूजको ढूँढे मंदर में ।

मैं बैठा हूँ आँख बिछाए कब तु झाँके अंतर में ।।

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ईतनी शिद्दत से दुनिया ख़ुदा को ढूँढती है
जैसे, समन्दर की एक बूँद समन्दर मै पानी को ढूँढती है ।।
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मंदिर गयामस्जिद गयाढूँढिया तिरथ धाम 
ना कहीं पाया रहीम नुना कहीं देखिया राम ।।

जब तन झाँका आपनाहुआ जब आतम ज्ञान 
फिर ना कहीं कभी कुछ मिलाजिसमें बसा ना राम ।।

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सफ़ा से मिलकर सफ़ा होगया मैं
मिट गयी बेख़ुदी, ख़ुद खुदा होगया मैं ।।
ख़ुद में रहेकर था खुदसे जुदा मैं

भुलाके खुदको, ख़ुद खुदा होगया मैं ।।

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कोसों दूर क्यों चले तु "साधक"
पानेको शिव की एक झलक ।।
सब कुछ हासिल "यहीं ईसी पल"
बस, पाँच कोष भिंतर को चल ।।


"यहीं ईसी पल"  =   Here and Now (Refer  Page Here and Now)


   पाँच कोष।    =   अन्नमय, प्राणमय, मनमय, विज्ञानमय, आनंदमय

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काशि गये मथुरा गये, नहाये गंगे नीर
ना झाँका ईस देहमॉ, ज़ाह मै बसिहे पीर ।।

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"साधक" करिले साधना, थोड़ी धरिले धीर
"मै" खोये हरिहर मिले, कह गये संत फ़क़ीर ।।

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एक दोहा Green Chemistry के नाम

Geern Green तो सब कहे, Green जंगल की घास ।
पड़े जो सूखा साँस का, तब माने Green ख़ास ।।

लोग Green की value नहीं समझते। उनकी नज़ारों मैं green जंगल के घास से समान है। जिसकी कुछ value नहीं।

पर जब साँस लेना भी मुश्किल हो जाएगा तब Green की क़दर करेंगे उसे ख़ास मानेंगे.

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एक दोहा Medicine के नाम

माथे लगाके पूजके, पावे अन्न जल प्रसाद ।
क्यों न पूजे औषधि जो देवे दुःख मै साथ ।।

कहत श्रद्धा के नाम पे पूजे जाय प्रसाद।
क्यों लागे फिर औषधि, गर हो पूरी श्रद्धा साथ ।।

हर वो चीज़ पूजी जाती है जिससे कुछ फ़ायदा हो।
हम अन्न जल और प्रसाद को पूजते है । माथेसे लगाके ग्रहण करते है। लेकिन औषधि को नहीं पूजते। औषधि को माथे से लगाके नहीं लेते। जबकि हमारे दुःख दर्द बीमारी मै  औषधि ही काम आती है। 

कहते है श्रद्धा है इसलिए प्रसाद को पूजते है और माथे से लगाके लेते है। अगर श्रद्धा पूर्ण होती तो औषधि की ज़रूरत ही क्यों पड़ती।

- कमलेश (साधक )

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